PENSIONERS' VOICE AND SOUND TRACK APPEALS YOU "USE MASK""KEEP SOCIAL DISTANCE" "GHAR BATHO ZINDA RAHO" "STAY HOME SAVE LIVES"
DEAR FRIENDS, CONGRATS, YOUR BLOG CROSSED 3268000 HITS ON 01.02.2023 THE BLOG WAS LAUNCHED ON 23.11.2014,HAVE A GREAT DAY
VISIT 'PENSIONERS VOICE & SOUND TRACK' WAY TO CATCH UP ON PENSIONER RELATED NEWS!

Monday, 30 November 2015

वेतन आयोग से आगे की व्यवस्था-एन के सिंह, पूर्व सांसद और पूर्व केंद्रीय सचिव

after+7th+cpc+hindi+newsएन के सिंह, पूर्व सांसद और पूर्व केंद्रीय सचिव

न्यायमूर्ति माथुर के नेतृत्व वाले सातवें वेतन आयोग की रिपोर्ट सरकार को मिल गई है। हमेशा की तरह सरकार आयोग की सिफारिशों की पड़ताल करेगी; संयोग से इस समय केंद्र में एक स्थिर व मजबूत सरकार है, जिसके सामने फिलहाल कोई चुनावी मजबूरी नहीं है, इसलिए आशा है कि आयोग की सिफारिशों का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन हो सकेगा। मुझे याद है कि जब मैं सचिव (व्यय) था, तब पांचवें वेतन आयोग को इस राजनीतिक दबाव से काफी धक्का लगा था कि वेतन-वृद्धि के लिए उसकी सिफारिशों की पुनर्समीक्षा की जाए। सचिवों की समिति को, जिसका सदस्य मैं भी था, इस बारे में कोई आजादी हासिल नहीं थी और आखिरकार अर्थशास्त्र को सियासत के हाथों परास्त होना पड़ा था।


सातवें वेतन आयोग की मुख्य सिफारिशों में केंद्र सरकार के मुलाजिमों के वेतन-भत्तों व पेंशन में 23.55 फीसदी की बढोतरी की अनुशंसा की गई है। इस मद में एक लाख, 2,000 करोड़ रुपये की वृद्धि की मांग की कई है। निस्संदेह, बाजार के विश्लेषकों के 15 से 20 प्रतिशत की वृद्धि के अनुमान से यह ज्यादा है। इससे सकल घरेलू उत्पाद, यानी जीडीपी पर कुल मिलाकर 0.65 प्रतिशत का वित्तीय भार पड़ेगा। छठे वेतन आयोग के भार के मुकाबले यह कम ही है। उसका वित्तीय बोझ जीडीपी का लगभग एक प्रतिशत आंका गया था। 

वेतन वृद्धि का सबसे अधिक फायदा निचले स्तर पर हुआ है, जिसे 18,000 करने की सिफारिश की गई है, जबकि शीर्ष स्तर पर केंद्रीय सचिवों के लिए ढाई लाख रुपये की अनुशंसा है। हालांकि, ट्राई, सीईआरसी जैसी नियामक संस्थाओं के प्रमुख साढ़े चार लाख रुपये महीना पा सकेंगे। इसमें कोई दोराय नहीं कि केंद्रीय सचिवों और रक्षा तंत्र के प्रमुखों को दूसरी तरह की काफी सुविधाएं भी मिलती हैं और वे उन्हें अलग से मिलती रहेंगी। नियामक संस्थाओं के प्रमुखों के मामले में इनको शामिल नहीं किया गया है।

क्या ये वेतन वृद्धि वाजिब हैं? इसे देखने के कई तरीके हैं। सिंगापुर के संस्थापक ली कुआन यू ने एक बार कहा था और जिसे बाद में कई बार दोहराया गया कि 'अगर आप वेतन मूंगफली देंगे, तो आपको बंदर ही मिलेंगे।' आशय यह था कि सरकारी कर्मचारियों के वेतन और भत्ते इतने आकर्षक तो होने ही चाहिए कि वे प्रतिभाशाली लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर सकें। इससे उत्पादकता तो बढ़ेगी ही, प्रतिभा पर आधारित समाज का आधार भी मजबूत होगा। निस्संदेह, सभी सरकारें इस कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं कि वे प्रतिभा के आधार पर नौकरियां देती हैं, बल्कि रोजगार मुहैया कराने का उनका दायित्व कई बाहरी कारकों से भी प्रभावित होता है। सरकारी नौकरियों में उत्पादकता पर आधारित वेतन-भत्ते को गंभीरता से लागू करने को लेकर अब तक आम सहमति नहीं बन पाई है।

गैर-तकनीकी नौकरियों में, खास तौर पर बौद्धिक ज्ञान के गुणवत्तापरक मूल्यांकन का काम हमेशा ही काफी मुश्किल होता है। तो क्या सातवें वेतन आयोग की ये प्रस्तावित सिफारिशें प्रतिभाओं को सरकारी क्षेत्र में बनाए रखने या आकर्षिक करने के लिहाज से पर्याप्त हैं? 

इस संदर्भ में पांच खास मुद्दों पर गौर करने की आवश्यकता है-
पहला, क्या हम इस ऐतिहासिक परंपरा को त्याग सकते हैं कि शीर्ष स्तर के नीति-निर्धारकों के वेतन-भत्ते बाजार के आधार पर तय नहीं होने चाहिए? जबकि बौद्धिक प्रतिभाओं को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए बाजार से उनका जुड़ा होना जरूरी है। बौद्धिक प्रतिभाओं को आकर्षित किए जाने से कुल मिलाकर उत्पादकता बढ़ेगी। दुर्योग से, हमारी पारंपरिक सोच यह रही है कि शीर्ष स्तर के मुलाजिमों के भत्तों और निचले पायदान के कर्मचारियों के भत्तों में फासला एक तय अनुपात से अधिक नहीं होना चाहिए। यही वह तत्व है, जो सरकारी क्षेत्र में, खासकर स्वतंत्र निकायों में बाजार की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं को आने से रोकता है। विकसित होने की ओर बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में स्वतंत्र निकायों के गठन से बचा नहीं जा सकता। सातवें वेतन आयोग ने इस समस्या पर कुछ हद तक गौर किया है, फिर भी यह निराशाजनक है कि बाजार द्वारा दी जाने वाली तनख्वाह से यह कम है। इसलिए इस पहलू पर और विमर्श व व्यापक सहमति बनाने की जरूरत है।    

दूसरा, क्या इस रिपोर्ट को स्वीकार करना राजकोषीय घाटे के सरकारी लक्ष्य के साथ समझौता करना होगा? मौजूदा वित्तीय वर्ष में राजकोषीय घाटे को 3.9 फीसदी पर लाने का लक्ष्य है, जबकि अगले वित्तीय वर्ष मेें 3.7 प्रतिशत पर और 2017 में तीन प्रतिशत। ये वाकई काफी चुनौतीपूर्ण लक्ष्य हैं। फिर भी वित्त मंत्री अरुण जेटली मोदी सरकार के भाग्यवान जनरल हैं कि वह ऐसी स्थिति में हैं कि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों को मोटे तौर पर स्वीकार करने और राजकोषीय लक्ष्य को हासिल करने में उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी। तेल और वस्तुओं की कम कीमतें, राजस्व वसूली में उछाल, जीडीपी की ऊंची दर को देखते हुए तर्कसंगत मूल्य निर्धारण से इन दोनों लक्ष्यों को हासिल किया जा सकता है। कुल मिलाकर, मेरी राय में सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें राजकोषीय लक्ष्य को प्रभावित नहीं करेंगी।  

तीसरा, हमेशा ही एक बड़ा सवाल सबका ध्यान खींचता है कि सरकार का आकार छोटा किया जाना चाहिए कि नहीं, लेकिन इसका उत्तर नहीं मिलता। पिछले वेतन आयोग के वक्त भी यह जोरदार बहस छिड़ी थी कि सरकारी मुलाजिमों को अच्छी तनख्वाह मिलनी चाहिए और सरकारी अमले का आकार कम किया जाना चाहिए। सरकार के आकार को कम करने और नियुक्तियों को फ्रीज करने की तमाम कवायदें अधूरी हैं। निस्संदेह, कई क्षेत्र ऐसे हैं, जिनमें सरकारी कर्मचारियों के आकार को विस्तार देने की जरूरत है। जैसे, आंतरिक सुरक्षा के मद्देनजर आबादी के अनुपात में पुलिस बल की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए। अदालतों में लंबित मामलों की विशाल संख्या, रक्षा क्षमता की जरूरतों और एक-दूसरे पर आश्रित होती दुनिया में व्यापार व कूटनीतिक प्रयासों के महत्व को देखते हुए इन क्षेत्रों को मजबूत करने की जरूरत है। संक्षेप में, सरकार को विस्तार और समेटने, दोनों की जरूरत है। निजीकरण की योजना इस कवायद का एक अहम हिस्सा है। 
चौथा मुद्दा यह है कि सरकार के कुल खर्च की गणना का तार्किक रास्ता क्या हो? यह वेतन और भत्तों के मौद्रिक आकलन से कहीं आगे है। आखिरकार प्राइम लोकेशन में सरकारी बंगले और दूसरी रियायती सुविधाओं का मूल्यांकन कैसे होगा?

पांचवां, वेतन आयोग की सिफारिशों का कुल मिलाकर क्या असर पड़ता है? जाहिर है, राजनीतिक निकाय सबसे पहले इसका असर महसूस करेंगे। राज्य सरकारें इसी राह पर चलेंगी और फिर सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाएं भी। निजी क्षेत्र पर भी इसके आर्थिक असर पड़ेंगे, निजी कंपनियों, स्कूलों, अस्पतालों की तनख्वाह पर भी इसका असर होगा। अर्थव्यवस्था की प्रतिस्पर्द्धात्मकता पर इसका कितना असर पड़ेगा, इस संबंध में सावधानी से विचार करने की जरूरत है। 

बहरहाल, हमें मौजूदा बहस से आगे एक नई व्यवस्था की ओर बढ़ने की आवश्यकता है। तनख्वाह को निश्चित रूप से उत्पादकता से जोड़ा जाना चाहिए। यही प्रगति का रास्ता है। सही है, उत्पादकता का आकलन हमेशा चुनौतीपूर्ण होता है। पर भारत जिस गति से वैश्वीकृत हो रहा है, उसमें अंतरराष्ट्रीय स्तरों से उसकी तुलना होगी ही।  
    (ये लेखक के अपने विचार हैं)